बात उस समय की है जब उदयपुर में महाराणा भीम सिंह का शासन था । उन दिनों कुछ चारण महाराणासाब के पास सोरठे रचकर ले गए,जिस कारण उन सब को अच्छा पुरस्कार मिला मगर एक चारण को किसी कारणवश कुछ नहीं मिल सका । इस पर चारणों ने उसको चिढ़ाना शुरू कर दिया तो उस चारण ने कहा “आप ने तो महाराणा की प्रशंसा करके इनाम प्राप्त किया है लेकिन मैं महाराणा की निंदा करके पुरस्कार प्राप्त करूँगा । एक दिन महाराणा भीमसिंह की सवारी कहीं जा रही थी तो वह चारण सवारी के सामने चला गया और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा ।
”भीमा थूं भाटो मोटा मगरा मायलो”
मतलब- हे भीम सिंह । तू किसी बड़े पर्वत का पत्थर है । इतना सुनते ही महाराणा के चोबदार, सेवक और छड़ीदार इत्यादि ने उसे डाटना शुरू कर दिया । परंतु महाराणा समझ गए कि चारण जी को अवश्य कोई दुख है तभी वह ऐसा कर रहे है । उन्होंने चारण जी को पास बुलाकर सारा हाल दरयाफ़्त करके उनको सबसे अधिक इनाम दिया । तब चारण जी ने अपना सोरठा पूरा करके इस तरह सुनाया-
“भीमा थूं भाटो मोटा मगरा मायलो ।
कर राखूँ काठो शंकर ज्यूं सेवा करूँ ।।”
मतलब- हे भीम सिंघ । तू बड़े पर्वत का ऐसा पत्थर है जिसे यत्न में रखकर मैं महादेव की भाँति सेवा करूं ।यह सोरठा सुनकर महाराणा अति प्रसन्न हुए और जितना इनाम पहले दिया था उतना ही फिर देकर चारण जी को विदा किया ।