Author: रघुवीर सिंघ राजावत कुरड़ाया

  • महाराणा भीमसिंह और दुखी चारण

    बात उस समय की है जब उदयपुर में महाराणा भीम सिंह का शासन था । उन दिनों कुछ चारण महाराणासाब के पास सोरठे रचकर ले गए,जिस कारण उन सब को अच्छा पुरस्कार मिला मगर एक चारण को किसी कारणवश कुछ नहीं मिल सका । इस पर चारणों ने उसको चिढ़ाना शुरू कर दिया तो उस चारण ने कहा “आप ने तो महाराणा की प्रशंसा करके इनाम प्राप्त किया है लेकिन मैं महाराणा की निंदा करके पुरस्कार प्राप्त करूँगा । एक दिन महाराणा भीमसिंह की सवारी कहीं जा रही थी तो वह चारण सवारी के सामने चला गया और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा ।

    ”भीमा थूं भाटो मोटा मगरा मायलो”

    मतलब- हे भीम सिंह । तू किसी बड़े पर्वत का पत्थर है । इतना सुनते ही महाराणा के चोबदार, सेवक और छड़ीदार इत्यादि ने उसे डाटना शुरू कर दिया । परंतु महाराणा समझ गए कि चारण जी को अवश्य कोई दुख है तभी वह ऐसा कर रहे है । उन्होंने चारण जी को पास बुलाकर सारा हाल दरयाफ़्त करके उनको सबसे अधिक इनाम दिया । तब चारण जी ने अपना सोरठा पूरा करके इस तरह सुनाया-

    “भीमा थूं भाटो मोटा मगरा मायलो ।

    कर राखूँ काठो शंकर ज्यूं सेवा करूँ ।।”

    मतलब- हे भीम सिंघ । तू बड़े पर्वत का ऐसा पत्थर है जिसे यत्न में रखकर मैं महादेव की भाँति सेवा करूं ।यह सोरठा सुनकर महाराणा अति प्रसन्न हुए और जितना इनाम पहले दिया था उतना ही फिर देकर चारण जी को विदा किया ।

  • कान सिंघ चौहान और किले का दरवाज़ा

    बात उस वक़्त की है जब चितौड़ नरेश महाराणा संग्राम सिंघ की सहायता से रायमल राठौड़ ईडर राज्य का स्वामी बना। यह सब गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को नहीं जमी तो उसने रायमल राठौड़ को अपदस्थ करने के लिए सेना भेजी जिसे रायमल ने परास्त कर दिया ।अबकी बार गुजरात सुल्तान ने अपने सेनानायक मुबारिज़ुल्मुल्क को विशाल सेना सहित ईडर भेजा । उसने ईडर पर अधिकार कर लिया तो रायमल को ईडर से भागकर चित्तौड़ आना पड़ा । महाराणा सांगा ने जब ये सुना तो वह गुजरात सुल्तान की हिमाकत से आग बबूला हो गए । वह ईडर के लिए सेना सहित रवाना हो लिए । उनके ईडर के समीप पहुँचने से पहले ही सेनानायक मुबारिज़ुल्मुल्क घबराकर वहाँ से भागा और अहमदनगर के किले में जा बैठा । महाराणा सांगा ने रायमल राठौड़ को ईडर की गद्दी पर बैठाया फिर उन्होंने अहमदनगर के किले को जा घेरा । मुसलमान किले से बाहर नहीं निकले । किला बड़ा मज़बूत था और अंदर प्रवेश के लिए दरवाज़ा तोड़ना अतिआवश्यक था । किंवाड़ तोड़ने का कार्य सरदार डूंगर सिंघ चौहान के नेतृत्व में हो रहा था । क़िले के किंवाड़ो पर लोहे के बड़े-बड़े नुकीले भाले लगे हुए थे । उन्होंने हाथी के मोहरा करवाया मगर हाथी बार-बार किंवाड़ तोड़ने की बजाय भालों के डर से वापस मुड़कर आ जाता । यह सब देखकर डूंगर सिंघ का वीर पुत्र कान सिंघ चौहान आगे बढ़े और अद्भुत साहस दिखाते हुए ऊपर चढ़कर अपने हाथों से किंवाड़ के उन भालों को पकड़ लिया । उन्होंने महावत को आदेश दिया कि वो हाथी को आगे ठेले । आदेश का पालन हुआ और हाथी को महावत ने आगे बढ़ाकर टक्कर दिलाई । हाथी के मस्तक और किंवाड़ के भालों के बीच कान सिंघ की छाती आ जाने की वजह से हाथी के मोहरे से क़िले का किवाड़ (प्रवेश द्वार) टूट गया । साथ ही वीर कान सिंघ चौहान ने प्राण त्याग दिए । इस प्रकार एक चौहान राजपूत मौत से गठजोड़ कर स्वर्ग सिधार गया । इधर सेना क़िले घुस गई । परिणामस्वरूप महाराणा संग्राम सिंघ (साँगा) विजय हुए ।

  • भोमिया राजपूत का बदला

    भोमिया राजपूत का बदला

    बात झड़वासा गांव की है जहाँ एक भोमिया राजपूत सबल सिंह निवास करते थे और उसी गांव के हकीम निजाम अली रहने वाले थे । इन दोनों में बनती नहीं थी । अंग्रेज़ सरकार ने निजाम अली को 1877 ई में अजमेर का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बना दिया । मौका पाकर उसने गांव में आग लगने के आरोप में सबल सिंह को क़ैद करवा दिया । सबल सिंह क़ैद में रहे और रिहा होने का इंतज़ार करने लगे । जब वो रिहा होकर बाहर आये तो सबसे पहले अजमेर के बाज़ार से एक तलवार खरीदी । और सीधे दिन-दहाड़े हकीम निज़ाम अली की हवेली पहुँच गए और निज़ाम अली का सिर काट दिया । और उसके बाद छाती चौड़ी करके तलवार लहराते हुए चले गए । तत्कालीन अजमेर प्रशासन ने शहर के दरवाजे बंद करवाकर घुड़सवार पुलिस को पीछे दौड़ाया लेकिन वो कहीं भी नहीं मिले ।